मंगलवार, 31 जुलाई 2018

कतरा कतरा प्यास...

वो जर्रा-जर्रा रेत सा,
मुझ पर ब‍िन ठहरे, उस एक पल में गुजरता है,


ऐसे में जब कभी
पथराया आसमान और प‍िघलती जमीन,
पूछ बैठते हैं मुझसे मेरी फि‍तरत,
तो मैं एक जोड़ी आंखों से टपका देती हूं,
इंतजार में पानी हुआ वक्त,
कुछ कतरा प्यास...


और,
न‍िरंतरता को तलाशता वो पल...
कठोरता और मृदुता से परे,
कहीं जम गया है,
कहीं आसमान के उस कोने में,
जहां न हवा है न सांस,
न‍िरंतर दम तोड़ता,
तलाशता है बहाव को,
और बिखराव को...


पर नहीं,
वो ये क्यों भूल जाता है,
इंतजार ही है उसकी प्राण वायु
क‍ि ज‍िस दि‍न ये खत्म होगा,
वो भी रेत सा बि‍खरेगा जाएगा जर्रा-जर्रा,
और बनेगा,
पत्थर हो चुका वक्त,
और कतरा कतरा प्यास...

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'जाना वाष्प होना तो नहीं...'




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