सोमवार, 14 सितंबर 2009

बनना और बिखरना

कभी नहीं चाहा था
कि मैं किसी के बिस्तर की,
सिल्वट भर बन रहूं,
कुछ ऐसी
कि उठने पर,
उसे खुद न पता हो
कि किस करवट से,
उभर आई थी मैं.
जरा गौर से देखो,
हमारा रिश्ता,
कुछ ऐसा ही तो है,
हां,
मैं हमेशा चाहते,
न चाहते
तुम्हारे सामने बिछ जाती हूं,
तुम उठते हो
और मुझे झाड़ देते हो
सदा के लिए...
तुम्हारी कसम
सच कहती हूं,
यह सोचकर अजीब लगता है
कि
मेरे अस्तित्व का बनना
और
बन कर बिखर जाना
तुम्हारे ऊपर ही निर्भर करता है.

अनिता शर्मा

शनिवार, 12 सितंबर 2009

वो अदना सी चादर

रोज की तरह,
मैं अपनी मुश्क से मुंह ठके
सोने चली थी.
रोज की तरह
तुम्हारी यादों के
भूखे भेडिये भी
झपट पड़े थे.
यकायक
चेहरे पर पड़ी चादर ने,
मेरे होठों को छू लिया.
मुझे लगा यह तो तुम हो,
पर...
न न तुम कैसे हो सकते हो भला,
इतने आत्मिय ?
अब तो
करीब आकर वह
मेरे गालों से लिपट गई.
मैं सिहर गई,
मैंने आंखों को जोर से मूंद लिया,
और जी भर तुम्हें चूम लिया...
रोज की ही तरह,
एक और रात
तुम्हारे साथ गुजर गई.
पर हां,
कुछ अलग थी वह.
क्योंकि उस रात से
वह अदना सी चादर भी
मेरे लिए खास बन गई.

अनिता शर्मा

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम कि‍स्से मुझे फि‍र से सुनाना. और पूछना मुझसे क‍ि हुआ कुछ ऐस...