मंगलवार, 24 नवंबर 2009

होठों का विपुल क्रंदन

मैं शापमय वर हूं।
(यह पहली पक्ति मेरी अपनी नहीं है।)
किसी के होठों का विपुल क्रंदन हूं,
व्यंत कहीं सूनेपन में,
मैं लहलहाती हुई सूनी लता हूं।
मुझ से रहो दूर,
जो चाहते हो भोगी सुखमय जीवन।
वृकायु से वैदेह के दिए
सूनेपन का
मैं निर्बाध बढ़ता विस्तार हूं।
जान लो मुझे करीब से,
मैं किसी भोगी के विलास से
फूट पड़ी हित्कार हूं।
दुत्कार दिए किसी भिक्षुक की
आंख से टपका पीड़ामयी मल्हार हूं।
टूटी किसी मसी की
मैं दर्द भरी चित्कार हूं।
माधुरी सी मुग्धा कभी थी,
आज विहर वेदना से भरी अपार हूं...
अनिता शर्मा

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम कि‍स्से मुझे फि‍र से सुनाना. और पूछना मुझसे क‍ि हुआ कुछ ऐस...