मंगलवार, 28 अगस्त 2018

बेजार प्यार

क्या पलट रहे हो तुम, पन्नों सा वक्त या वक्त हो चुके पन्ने या क‍ि तुम मुझे छू ही लेना चाहते हो आंखों के चुंबन से सुनों, छज्जे से जा च‍िपकी हैं तुम्हारी दो आंखें, मुझे ताकती हैं निरंतर कि‍सी बंधुआ सी मैं घुप जाना चाहती हूं, उस सीने में, जि‍समें लबालब है पसीना, चख लेना चाहती हूं इस खारे अमृत को, या क‍ि मैं पीना चाहती हूं तुम्हारे आंसुओं को भी, जो छज्जे पर जा लगी दो आंखों से टपकते हैं दूरी की मवाद से... मवाद, काम में बेजार प्यार की, मवाद, हजारों-हजार बार छू सकने के इंतजार की, टीस सी उभर आती है मेरे भी सीने में... चलो, क्यों न आज इसे भींच कर न‍ि‍काल फैंके सीने से, क्यों न यहां लगाएं जरा सी राख, जो रोक सके बहते खून को... फि‍र हम उस राख पर उगाएंगे कुछ वक्त, कुछ पंखुड‍ियां, जरा सा नेह, तपती जलती देह और ढेर सारा खाना खाना? हां... ताकी तुम्हारी आंखें फ‍िर किसी छज्जे पर जाने को व‍िवश न हों, तुम रहो करीब, बेहि‍साब, बेमतलब, बेमवाद... सुनो, अब बताओ भी, क्या पटल रहे हो तुम, पन्नों सा वक्त या वक्त हो चुके पन्ने...

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

कुछ बेहद प्यारे ख़्वाब सा

क्या सचमुच हम प्यार करते हैं, या ये हो जाता है बिन सोचे व‍िचारे... क्या प्यार की रौशनी भी छ‍िपी होती हैं अंधेरे कोनों में कहीं... क्या वहां, जहां कहीं अंधेरे में तुम दबे होते हो तो तुम तक पहुंचती भी हैं ये रौशन हवाएं और सांसें...? क्या तुम भी भर लेते हो एक सांस, पी लेते हो एक प्यास, तोड़ लेते हो कुछ सपने, उन्हें फ‍िर गढ़ते हुए... क्या तुम देख पाते हो मुस्कुराती आंखों के पीछे दबी वह चीज, जो रोज अंधेरे कोनों से सटे इन दो रौशनदानों से झांकती है जगमगाती दुन‍िया में...

अंधेरे में दुबके इस मन को आंखों के रौशनदान बहुत पसंद जो हैं. यहीं से वो देखते हैं हरे-भरे बाग, बागों में बैठे पर‍िंदे, आसमान में दौड़ती बेघर हवा, समंदर पर झुका प्यासा बादल, धरती को चूमता आसमां... वह सोचता है यह सब स्थाई है! ठीक उसके प्रेम से... पर रे भोले मन, हरे बाग, परिंदे, बेघर हवाएं, बादल, धरती और आसमां कहां स्थाई ठहरे, और प्रेम... अह! प्रेम तो निरा निर्मोही है... तू नहीं जानता, वो उस दिन सब छोड़ देता है, जिस दिन मोह छूटता है... क‍िसने कहा प्रेम स्थाई है... सबकुछ पर‍िवर्तनशील है बुद्धू...


मेरी बातों में अक्सर उसका मन नहीं लगता, मुंह घुमा लेता है मुझसे... पर मेरा साथ उसे पसंद है. भले ही चुपचाप सा, लेक‍िन रहता पास ही है... कल कहने लगा, 'तुम मानती क्यों नहीं, तुम्हें प्यार है.' और मैंने मुंह अपनी टीशर्ट के अंदर घुसा ल‍िया... उसने कहा- 'अब ये क्या बचपना है...'

मैं चुप थी, उस ढीठ मन से कहा- 'ये बचपना कहां... बचपना तो इस वक्त तुम्हारे बालों से खेल रहा है, देखो वो लुढ़क कर तुम्हारे कांधे पर आ बैठा है, अब जरा उसे देखो भी... अरे, अरे वो गर्दन पर उंगल‍ियां क्यों फेर रहा है... ये ढीठ तुम्हारे सीने से क्यों जा ल‍िपटा है... अरे रोको इसे, चलो छोड़ो करने दो इसे ये बचपना...'

'तुम बोलने से इतना डरती क्यों हो, बोल दिया करो न हर वो बात, जो किसी से नहीं कहती या फिर सभी को बता देना चाहती हो...'

ऐसा अक्सर होता है, कुछ कहते कहते कहने का मन नहीं करता, तो चुप रहते रहते चुप रहने का भी मन नहीं करता... उस दिन ऐसा बहुत कुछ था जो मन को बताना था, लेक‍िन वो सुनता कहां है मेरी. दो बातें सुनने के बाद बस अपनी कहता है... बहुत कुछ ऐसा जो मैं बार-बार सुनना चाहूं, लेकिन बुद्धू सा वो एक ही बार कहता है हर बात...

कहने लगा तुमसे बहुत प्यार है... फ‍िर क्या था, ऐसा लगा क‍ि आसमां ही नहीं सब कुछ नीला हो चला है, मैं पैरों पर नही परों पर हूं, उड़ रही हूं कहीं नील गगल में, कहीं दूर क्ष‍ित‍िज को चूम रही हूं, लाल हूं सांझ में भी भौर सी, पी रही हूं चांद को और जल रही हूं सूरज से भी... मैंने सोचा, क्या जरूरी है इस मीठे मन को नाम देना, क्यों न इसे बेनाम छ‍िपा कर रखा जाए. एक अरमान जैसा, एक बेहद प्यारे ख्वाब जैसा. ज‍िसे हम बार-बार देखना चाहते हैं. पर देखो न, ये जो ख्वाब हैं न ये हमारी नहीं अपनी मर्जी से आते हैं. तो क्या, बस इंतजार... हां, इंतजार ही तो कर सकते हैं हम. उनके चले जाने पर फ‍िर से आने का...

मन अपनी बातें कह कर जा चुका था. मैं वहीं खड़ी थी, पर अकेली नहीं, उसके स्पर्श के साथ, वो स्पर्श जो बचपने को म‍िला, वो ज‍िसका ख्वाबों में इंतजार होगा, वो जो महका देता है उदास रात में अकेली हवा को भी, वो जो टपकता है चांद से लगातार, वो जो खि‍ड़की के कोने से मुझे हमेशा ताकता है, वो जो आंखों के झरोखों से द‍िल में झांकता है... उसके सरपट दौड़ते कदम चले जा रहे हैं मुझसे दूर और मैं दौड़ रही हूं उनके करीब, और करीब, और करीब, बेहद करीब ये कहने को - 'बुद्धू, तुम जाकर भी नहीं जा पाओगे'.

सोमवार, 6 अगस्त 2018

लड़क‍ियां रुबाई सी होती हैं!


क्या हर कहानी सच्ची होती है... शायद हां. आख‍िर कहानि‍यां हमारे अपने कि‍स्सों से ही तो बनती हैं न... मानो जैसे ज‍िंदगी को सुनते-सुनते एक रोज ठहर कर उसे कुछ कह देना, फि‍र उसे ही बता देना वो तमाम क‍िस्से जो उसने ही हमें सुनाए थे, ज‍िनमें हम अक्सर रोए तो अक्सर मुस्कुराए थे. कभी-कभी ज‍िंदगी जब कि‍ताबों से नि‍कल कर आती है तो सुंदर लगती है और इसके बाद जब वो फ‍िर क‍िताब होती है तो और खूबसूरत हो जाती है... कुछ यूं ही तो तुम हो मेरी ज‍िंदगी में बेमतलब पर बेशकीमती से, पत्थर होते हुए भी हीरे से, दूर होते हुए भी करीब से, ज‍िंदगी न होते हुए भी ज‍िंदगी से...

याद है तुमने कहा था न-



'तुम दिल्ली की बार‍िश हो... खुद तो गीली हो ही मुझे भी हर बार भ‍िगा जाती हो. कभी-कभी सूखा भी होना चाह‍िए न. ज्यादा नमी भी अच्छी नहीं... '

'दिल्ली की बार‍िश! क्यों?'

'बस हो तो हो...'



'हम्म... और तुम! तुम क‍िसी फोल्डर से हो. ज‍िसमें स‍िर्फ फेक्ट्स रखे हैं. ऐसा फोल्डर ज‍िसे खोलने पर जीके तो बढाया जा सकता है प्यार नहीं... तुम्हें जरा सा प्यार, जरा सी बार‍िश और थोड़ी सी ठंड भी डाउनलोड करनी चाह‍िए... कब तक नोटपेड बने रहोगे, पेंट बनो न, रंगों से भरपूर, संभावनों से लबरेज और कल्पनाओं की असीम‍ित रेखाओं से भी परे... क्या हुआ बोलते क्यों नहीं...'

'तुम बोलो, अच्छी लगती हो बोलते हुए...' इन शब्दों से जैसे दिन भर चहकते द‍िल्ली के क‍ि‍सी चोराहे पर अचानक से रात का सन्नाटा पसर गया था... इस कानफाडू सन्नाटे को तुमने ही तो तोड़ा था न- 'अच्छा, बताओ तो सही हम इतनी बातें क्यों करते हैं?'

मैने बचपने से कहा था 'तुम ही बताओ क्यों?'

'क्योंक‍ि तुममें नशा है, चरस जैसा नशा, मैं तुमसे बेमतलब बातें क‍िए बि‍ना रह नहीं सकता... तुम्हारी लत हो गई है मुझे... '

मैं महकने लगी. पर चरस सी नहीं, मोगरे सी... ये तेज खुशबू सबको मेरी आंखों में तैरती द‍िख रही थी... मेरी आंखें ज‍िस क‍िसी से मिलतीं वो महक उठता... तुमसे जब जब बातें करती मेरे चारों ओर खुशबू फैल जाती. बेशम सी, अटखेल‍ियां करती खुशबू... मानों मैं ही उसका फूल हूं और मुझ पर मंडराना ही उसकी सार्थकता.

(मैंने सोचा लड़क‍ियां क‍िसी रुबाई सी होती हैं, क‍िसी लेखक की रचना जैसी, ज‍िन्हें प्यार की खूब तलब होती है. वो चाहती हैं क‍ि उन्हें बार-बार पढ़ा जाए, बांचा जाए, बदन‍ीयत से नहीं, प्यार से, सहेज कर... ठीक उन्हीं नजरों से देखा जाए जैसे ल‍िखना छोड़ देने के बाद कोई अपनी पुरानी रचनाओं को देखता है... कागज पर उभरे उन अक्षरों के बदन को हर्फ-दर-हर्फ उंगल‍ियों का स्पर्श देता है, उकसाता है अपने मन को फि‍र कुछ ल‍िखने को...)

और मैंने तुमने पूछा था- 'चरस, लत... अरे ठहरो भई... कहां जा रहे हो तुम. मैं चरस नहीं मोगरे का फूल हूं. सादा, लेकि‍न महक से भरा... और हां तासीर में गर्म. बच कर रहना...'

और तुमसे बातें करने की खुशी में ठहाके की महक ल‍िए चेहरे पर ब‍िखर आए थे कुछ मोगरे के फूल, कुछ कलि‍यां और कुछ हरे पत्ते... पर समझ से परे थीं तुम्हारी बातें. न जाने क्यों रोज एक नई उपमा देते थे मुझे. ऐसा तो नहीं था क‍ि मैंने ये सब पहली बार सुना. पर हां, पहली बार अच्छा जरूर लगा... कभी-कभी अजीब लगता, फि‍र मन से कहती 'क‍ितनों पर भरोसा नहीं करेगा रे दुष्ट... समझ, सब एक से नहीं होते...' पर ये जो मन है न, उसके मन में ही चोर है...

मोगरे की उस महक ने उस दि‍न हमें शब्द विहीन सा छोड़ द‍िया था. मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कहीं दूर तुम महक रहे हो मेरी खुशबू में और यहां मैं पत्ता-पत्ता समेट रही हूं क‍ि अगली बार द‍िल्ली की नहीं फूलों की महकती बरसात बन सकूं... बता सकूं क‍ि रुबाई हूं मैं ठंडक, महक, नशे और गर्माहट से भरी... बता सकूं क‍ि मैं वो झरोखा हूं जो उमस भरे कमरे को देता है ठंडी ताजा सांसें, बता सकूं क‍ि रात के साये में जब चांद छ‍िप जाता है, तो अंधेरे समंदर पर स‍ितारों से जगमगाते जुगनू हूं मैं, बता सकूं क‍ि लत नहीं लहर हूं, रात हूं, सहर हूं और जो तुम में गुम हो गया है ऐसा एक पुराना क‍िस्से-कहान‍ियों वाला शहर हूं...

तुम्हें याद हैं न ये बातें...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम कि‍स्से मुझे फि‍र से सुनाना. और पूछना मुझसे क‍ि हुआ कुछ ऐस...