मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

यह पीड़ामयी बयार

बह चली है कैसी,
पीड़ामयी यह बयार,
जो बुनती रहती है,
विपुल क्रन्दन अपार,
अनायास ही दे जाती है
अनचाहे मुझको
अश्रु उत्स उधार,
प्रणय का तुम्हारा चुंबन
मेरी स्मृति बराए जूं आहार,
हाय, नेस्ती छाई है
बन जीवन विहास।
उसकी वाय में घुलना
तुम्हारा ए मेरे अवरुद्ध श्वास,
आज भी दे रहा है
मुझे वही मिश्रित सा अहसास।
तुम ही कहो अब
प्रयण का वह पल,
कैसे भूलूं मैं
बन पलाश।
देखो तो,
तुम्हारा वह भोगी स्पर्श,
नित करता है अट्टहास।
अनीता शर्मा

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

नस्ती सी पल्लवी


मैं वंच्य सी,
एक वंचिता,
जिसे प्रायः
सभी ने ठगा.
वृषक तो आए,
कई मुझ तक,
हो लालायित
इस नीरव योवन पर,
किंतु वहन न किया मेरा...
इस पर भी
अंजिर तक मेरे,
प्रेष्ठ तुम्हारा यूं आना
और आकर चले जाना...
सहसा कभी यूं ही
मुझ नय को
नीरव ध्वनि से
पुल्कित करना,
सच!
याद रहेगा मुझको
नित यूं,
तुम्हारा मुझे वलना.
कुछ यूं नेम रहा
स्नेह सूत्र हमारा...
जैसे नस्ती सी पल्लवी को
मिल गया हो
क्षितिज का कोई किनारा...

सिर्फ़ तुम्हारी 'अतृप्त ' अनु

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम कि‍स्से मुझे फि‍र से सुनाना. और पूछना मुझसे क‍ि हुआ कुछ ऐस...