मंगलवार, 31 जुलाई 2018

सुनों...

मेरे द‍िल की कहते हो या अपने द‍िल की सुनते हो,
कुछ तो है जो तुम अंदर ही अंदर बुनते हो...

सुनों,
टूटे तारे से बना वो रौशन सा रेश्मी स्पर्श ल‍िए,
वो खुद-ब-खुद आते हैं या तुम ही ख्वाबों को कहीं फूलों से चुनते हो...

सांस में उतर रहे हो कि‍सी लत से,
ये अदा है या मुझमें कहीं चुपचाप किसी धूंए से घुलते हो...

बताओ तो जरा,
पर्दा लाख क‍िया था हमने तुमसे,
फि‍र तुम बेपर्दा हो? या चुपके-चुपके इन पर्दों से भी मि‍लते हो...



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कतरा कतरा प्यास...


'जाना वाष्प होना तो नहीं...'




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कतरा कतरा प्यास...

वो जर्रा-जर्रा रेत सा,
मुझ पर ब‍िन ठहरे, उस एक पल में गुजरता है,


ऐसे में जब कभी
पथराया आसमान और प‍िघलती जमीन,
पूछ बैठते हैं मुझसे मेरी फि‍तरत,
तो मैं एक जोड़ी आंखों से टपका देती हूं,
इंतजार में पानी हुआ वक्त,
कुछ कतरा प्यास...


और,
न‍िरंतरता को तलाशता वो पल...
कठोरता और मृदुता से परे,
कहीं जम गया है,
कहीं आसमान के उस कोने में,
जहां न हवा है न सांस,
न‍िरंतर दम तोड़ता,
तलाशता है बहाव को,
और बिखराव को...


पर नहीं,
वो ये क्यों भूल जाता है,
इंतजार ही है उसकी प्राण वायु
क‍ि ज‍िस दि‍न ये खत्म होगा,
वो भी रेत सा बि‍खरेगा जाएगा जर्रा-जर्रा,
और बनेगा,
पत्थर हो चुका वक्त,
और कतरा कतरा प्यास...

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'जाना वाष्प होना तो नहीं...'




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बुधवार, 25 जुलाई 2018

'जाना वाष्प होना तो नहीं...'

वो सावन सा बरस रहा था और वो रेत सी बूंद-बूंद उसे संजो रही थी. खुद में सांस सा भर तो रही थी, लेकि‍न उसे रोक कब तक पाएगी... एक रोज छोड़ना तो होगा ही... एक रोज तो वो वाष्प होगा... कब तक रोक पाएगी इस अंजान सी असीमि‍त पर उसकी अपनी सीमाओं में बंधी वाष्प को... कहीं वो खुद भी प्यास भूल कर पानी तो नहीं हो जाना चाहती, कहीं उस शाप को भूल तो नहीं रही... शाप! हां वो शाप, जो उसे दे गया था एक बादल... वो भूल रही है क‍ि वो रेत है. तृष्णा और प्यास ही धधकती है उसकी देह में... प्यास, कभी न बुझने वाली... नहीं नहीं, अगर ऐसा है, तो ये बूंदे इतनी ठंडी क्यों हैं, इससे पहले तो कभी न हुआ ऐसा...
क्यों इतनी नमी सी आई है उसके मन में, क्यों भर-भर आता है बार-बार. क्यों उड़ता है हवा में वाष्प सा, ठीक वैसे जैसे कुछ रोज बाद वो चला जाएगा उससे अलग होकर...








कल ही की तो बात है, जब उसने कहा था
'उड़ चलो मेरे संग...'
'...'
'कुछ कहो तो सही'
'...'
'तुम कुछ बोलती क्यों नहीं हो... न बोलो, पर तुम्हारी आंखें सब कहती हैं...'
'... सच, क्या कहती हैं.'
'बहुत कुछ...'
'जरा संभल कर रहना, मेरे कान देखते भी हैं... वो देख लेते हैं तुम्हारे शब्दों में छि‍पा नेह... '
'नेह... हम्म...' और वो मुस्कुरा दिया था...
उसकी मुस्कान की म‍िठास ने उसे याद दिला दी प्यास, चुभन, छूटती सांस, वाष्प होती बूंदें और, और... वो शाप



वो चुप थी, उसने फिर कहा-
'कुछ कहो, मेरे बारे में, कुछ अच्छा...'
(अच्छा, अच्छा...!!' भला तुमसे अच्छा भी कुछ हो सकता है... इतनी ठंडक, इतना सुकून, इतना अपना, करीब बहुत करीब... )
'कहो न कुछ...' उसने तंद्रा तोड़ी.
'हां, तुम भले हो, सच्चे हो, सही हो और हां अपने हो...'
शुक्रि‍या... इतने नेह के लिए.

('नेह, वो तुमने देखा कहां, वो तो तहों में बंद है, बूंदों में भीग कर महक रहा है कहीं मन के कच्चे कोनों में, नहा रहा है खुलेआम बेशर्म सा किसी एकाकी छत पर, धड़क रहा है दिल्ली के किसी पार्क में बैठे दो ड़रे सहमे से द‍िलों में, घुल रहा है मैगी की महक में वाष्प सा... वाष्प, ओह तुम भी हो जाओगे न एक दिन... और मैं फि‍र रह जाऊंगी मरुस्थल सी....)

उसने मुंह घुमाया, उसकी ऊंगल‍ियां किबोर्ड पर दौड़ रही थीं तेजी से. वो आंखें बंद किए उन उंगल‍ियों की छुअन को सहेज रही थी... क्यों, क्यों ये क‍िबोर्ड पर हैं. कितना संगीत है इनकी इस थ‍ि‍रकन में, क‍ितने नर्म हैं इनके पोर... वो क‍िबोर्ड पर नहीं, उसके बालों में होनी चाह‍िए, बालों में भटके मुसाफ‍िर सी राह तलाशती रहें... पर ऐसे में कहीं उसका बर्फ हो चुका दि‍ल प‍िघल गया तो... तो वो वाष्प होगा, अरे नहीं, वाष्प होना तो चले जाना है...

'रोक लो न उसे, रोको, रोको, अरे रुको रुको...'
वो काम छोड़ पलट गया था-
'क्या हुआ, क‍िसे रोक रही हो, यहीं तो हूं मैं...'
'...'
तुम फि‍र कुछ नहीं बोलोगी'
'...' ( बोल तो रही हूं, तुमको सुनता ही नहीं, वैसे तो कहते हो क‍ि आंखें बोलती हैं. फि‍र बार-बार पूछते क्यों हो...)
'तुम चुप ही रहो... मैं चला, मेरा काम खत्म हुआ. चलो कल फि‍र म‍िलेंगे'

वो उठा, और चला गया...

मैं वहीं बैठी थी... चुपचाप अंतस में उठती प्यास को सहलाती हुई... क्या उसका जाना वाष्प होना था... नहीं नहीं, उसने कहा न कल फि‍र म‍िलते हैं... वो लौट आएगा, फि‍र बरसेगा बूंद बूंद... लेक‍िन क्या फ‍िर जाएगा भी... हां, जाएगा न, फ‍िर फ‍िर लौट आने को...' पर, काश क‍ि इस वाष्प के साथ मेरे कण भी वाष्प हो जाएं और जब ये बरसें कभी तो समंदर पर जा बरसें, मुझे छोड़ दें बूंदों संग उसी अंतहीन ठंडक के आगोश में, ताकी रेत होकर भी मैं रहूं पानी के बीच, तैरती रहूं ताउम्र उस खारे पानी में, तलाशती रहूं तुम्हें और तुम सी मिठास...'





शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

कहो न

तुम किसी को कितना चाह सकते हो, 
क्या दिन रात उसी में रह सकते हो...

क्या सौंप सकते हो उसे अपने मन का मनका, 
जिससे कोई वास्ता न हो तन का...
क्या जी सकते हो उसके बेतुके, बेमतलब जंजालों में, 
क्या खो सकते हो उसके उलझे-सुलझे बालों में...

क्या रह सकते हो उसके कच्चे मन के अंदर, 
क्या तैर सकते हो भावनाओं में जैसे अनंत समंदर...

क्या उड़ सकते हो बिन पंख उसकी कल्पनाओं के गगन में, 
कहो , क्या कुछ यूं बस सकते हो तुम किसी के मन में...

तूफां

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

तूफां

जि‍से शहर भर में तलाशती रही रूह,
वो आवारगी कहीं रगों में दौड़ती सी थी...

उसे कहां खबर थी, है दीवानगी हवाओं में,
जो बेतकल्लुफ हो लबों से नि‍गाहें प्यासी जा लगी थीं.

कहां था अंदाजा क‍ि ये जुनूं जला देगा आंचल सुर्ख शाम का,
क‍ि ये प्यास ले डूबेगी समंदर को भी...

इस पर भी कुछ यूं करीब से गुजर गया वो कम्बख्त,
जैसे गुजरा हो कोई तूफां चुपचाप सा तबाही कर बस अभी-अभी...

बेतकल्लुफी...

दिन के अंधेरे और रात के उजाले में,
जब कभी तुम यूं ही लौट आओ अपने आने-जाने में,
मुझे पुकार लेना, रोक लेना जरा इशारे से.
पूछना मुझसे तुम, क्या कहते हैं जमाने वाले,
हमारे और तुम्हारे बारे में.
हम बेतकल्लुफी से तुम्हें हर दर्द दिखाएंगे,
तुम जरा रो देना हम पर, हमारे दर्द पर,
फ‍िर देखना कैसे हम पर खि‍लखिलाकर ये जमाने वाले बेतहाशा मुस्कुराएंगे...

बुधवार, 11 जुलाई 2018

इंतजार

वक्त-बेवक्त, हर वक्त, इंतजार रहता है,
उंगल‍ियों के पोरवों पर, हवा सा यार रहता है,
वो रातें महसूस होती हैं लबों के सिरों पर,
सिलवटों का तो सिलसिला ही बेहिसाब रहता है,
लकीरों सा बिछा है हाथों में कहीं, पढ़ने को मन बेकरार रहता है,
वो चला गया कहकर कि अभी आता हूं,
पर फिर भी वक्त-बेवक्त, हर वक्त, इंतजार रहता है...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम कि‍स्से मुझे फि‍र से सुनाना. और पूछना मुझसे क‍ि हुआ कुछ ऐस...