रोज देखती हूं
एक निरक्षर हाथों का जोडा
दिल्ली की हर रेड लाइट पर
बेच रहा होता है
साक्षरता का पहला ‘अक्षर’
इस जोडे को शायद
जमा घटा का ज्ञान नहीं
किंतु एक रुपय की कीमत
भली भांती ज्ञात है
मैला सिर, मैले लत्ते,
और मैली आंखों में चमकता वो शुद्ध मन...
मुझे रोज याद दिलाता है
कि
वह मेरे साक्षर हाथों का श्रष्टा है...
इसलिए ही कहती हूं
जब कभी
अपनी साक्षरता का पर गुरुर हो,
दौड कर उस रेड लाइट पर जाएं
और देखें
आपके हाथों को साक्षर बनाने वाले
वो नन्हें हाथों का जोडा
आज भी उसी चौराहे पर
10 रुपय के जोडे के हिसाब से
पैंसिलें बेच रहा है
वही पैंसिल
जिसे पकड
आपने पहला अक्षर लिखा था...
अनिता शर्मा
रास्ते कहीं खत्म नहीं होते, हम एक बार अपनी मंजिल को छू लें,लेकिन ये भी सच है कि एक रास्ता पार होते ही दूसरी राह बाहें फैलाए हमारा स्वागत करने को तैयार होती है। बस देर इस बात की है कि हम जो मंजिल पा चुके है उसका मोह त्याग कर नए रास्ते को अपना लें...
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