रविवार, 31 अगस्त 2008

ये अरमान

'अरमान' उढते है,
कभी भी कहीं भी।
अरमान मरते हैं,
कभी भी कहीं भी।
लाखों अरमान,
ऐसे ही क्षण प्रतिक्षण,
जन्‍मते और मरते हैं
कभी भी कहीं भी।
क्‍योंकि....
पालने वाले इन अरमानों को,
भी,
उढते और मरते हैं
कभी भी कहीं भी।
ये अरमान
जुडा करते हैं
कहीं जन्‍म से
तो कहीं मरण से
कहीं भूख से
तो कहीं धन से,
कहीं सीमा पार से
तो कहीं स्‍वदेश से,
और भी भतेरे कारण हैं
इन अरमानों के
कहीं भी उढने,
कभी भी गिर जाने के।
हमें उढना होगा,
लड़ना होगा,
क्‍यों ?
क्‍योंकि इन अरमानों को,
पाने के लिए,
कोई भी उढ सकता है
कभी भी कहीं भी।

( अनिता शर्मा)



शनिवार, 30 अगस्त 2008

मेरी श्रृधा

मन में गहरी श्रृधा को लेकर,
पहुंची थी मैं गंगा के तट पर,
पर !खुशी नहीं हुई मुझे,
वहां पहली बार जाकर,
एक पीड़ा उभर आई होठों पर आंखों पर,
रोके न रूक रही थी वो पीड़ी,
टपक टपक कर सबको बता रही थी दुख मेरा,
देखा मैंने,
अनेक श्रृधाओं को,डूबते और तैरते,
व्‍यर्थ होते
उस आटे को,
रूई को,
तेल को,
कपड़े को
और इच्‍छा को,

जिसके लिए किसी के पेट में दर्द होता है,
कोई पूस के अंधेरे में,
नंगे बदन रोता है।
तैर रही थी वहां,
गंदी श्रृधा,
मैली श्रृधा,
जो मेरी पवित्र श्रृधा को,
मैला करने में जुटी थी।
लेकिन कुछ देर बाद मुझे रंज न रहा,
जब देखा मैंने कि एक आदमी ,
मुट्ठी भर आटे को रोता है,
एक आदमी,
उसे अंधी श्रृधा में खोता है।
यकिनन...यकिनन...
इसलिए
'आज' का 'अंधा मानव' रोता
है रोते रोते एक दिन वो मर जाता है।
और उसे बहा दिया जाता है उसी नदी में,
जहां उसे,
चाहे मरने पर ही,
पर रोटी और कपड़ा आखिर
ओह...
।मिल ही जाता है।
(अनिता शर्मा)

सोमवार, 11 अगस्त 2008

मेरी चाहत


जीवन की डोर में,
तुम्‍हें पिरोना चाहा है।
उठती- छूटती सांसों में,
न जाने कितनी बार,
तुम्‍हें भर लेना चाहा है।
लिखते- लिखते कितनी ही बार,
मेरी कलम की चौंच ने,
तुम्‍हें चुमना चाहा है।
कागज पर बि खरे रंग सा,
तुम्‍हारा स्‍पर्श,
हाथों से रगड़ रगड़ कर,
पोछना चाहा है।
रम गए हो ,
तुम रोम रोम मेंरे,
पर फिर भी,
खुद से जुदा कर,
न जाने कितनी ही ,
बार तुम्‍हें जी भर,
देखना चाहा।
(अनिता शर्मा)

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम कि‍स्से मुझे फि‍र से सुनाना. और पूछना मुझसे क‍ि हुआ कुछ ऐस...