सोमवार, 2 अप्रैल 2012

हत्‍या...

मुझे सजा होनी चाहिए,
वह भी फांसी की,
क्‍यों,
क्‍योंकि मैं हत्या की दोषी हूं...
वह भी एक या दो नहीं...
मैं रोज एक हत्‍या करती हूं...
कभी अपने आत्‍मसम्‍मान को,
तो कभी अपने अस्तित्‍व को,
मैं नित नए तरीको से कत्‍ल करती हूं...
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ओह, मैं भी कितनी मुर्ख हूं...
भला मुझे सजा क्‍यों मिले,
सजा तो जीवित को निर्जीव करने पर मिलती है...
पर मैं,
मुर्दा लाशों में महज खंजर घोपा करती हूं...
रोंदती हूं,
मर चुके अस्तित्‍व को,
और बस यूं ही कभी-कभी खुद को...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ...

जब कभी तुम जिंदगी से थक जाओ, तो मेरे पास आना... बैठना घड़ी भर को संग, वो तमाम कि‍स्से मुझे फि‍र से सुनाना. और पूछना मुझसे क‍ि हुआ कुछ ऐस...