बुधवार, 25 जुलाई 2018

'जाना वाष्प होना तो नहीं...'

वो सावन सा बरस रहा था और वो रेत सी बूंद-बूंद उसे संजो रही थी. खुद में सांस सा भर तो रही थी, लेकि‍न उसे रोक कब तक पाएगी... एक रोज छोड़ना तो होगा ही... एक रोज तो वो वाष्प होगा... कब तक रोक पाएगी इस अंजान सी असीमि‍त पर उसकी अपनी सीमाओं में बंधी वाष्प को... कहीं वो खुद भी प्यास भूल कर पानी तो नहीं हो जाना चाहती, कहीं उस शाप को भूल तो नहीं रही... शाप! हां वो शाप, जो उसे दे गया था एक बादल... वो भूल रही है क‍ि वो रेत है. तृष्णा और प्यास ही धधकती है उसकी देह में... प्यास, कभी न बुझने वाली... नहीं नहीं, अगर ऐसा है, तो ये बूंदे इतनी ठंडी क्यों हैं, इससे पहले तो कभी न हुआ ऐसा...
क्यों इतनी नमी सी आई है उसके मन में, क्यों भर-भर आता है बार-बार. क्यों उड़ता है हवा में वाष्प सा, ठीक वैसे जैसे कुछ रोज बाद वो चला जाएगा उससे अलग होकर...








कल ही की तो बात है, जब उसने कहा था
'उड़ चलो मेरे संग...'
'...'
'कुछ कहो तो सही'
'...'
'तुम कुछ बोलती क्यों नहीं हो... न बोलो, पर तुम्हारी आंखें सब कहती हैं...'
'... सच, क्या कहती हैं.'
'बहुत कुछ...'
'जरा संभल कर रहना, मेरे कान देखते भी हैं... वो देख लेते हैं तुम्हारे शब्दों में छि‍पा नेह... '
'नेह... हम्म...' और वो मुस्कुरा दिया था...
उसकी मुस्कान की म‍िठास ने उसे याद दिला दी प्यास, चुभन, छूटती सांस, वाष्प होती बूंदें और, और... वो शाप



वो चुप थी, उसने फिर कहा-
'कुछ कहो, मेरे बारे में, कुछ अच्छा...'
(अच्छा, अच्छा...!!' भला तुमसे अच्छा भी कुछ हो सकता है... इतनी ठंडक, इतना सुकून, इतना अपना, करीब बहुत करीब... )
'कहो न कुछ...' उसने तंद्रा तोड़ी.
'हां, तुम भले हो, सच्चे हो, सही हो और हां अपने हो...'
शुक्रि‍या... इतने नेह के लिए.

('नेह, वो तुमने देखा कहां, वो तो तहों में बंद है, बूंदों में भीग कर महक रहा है कहीं मन के कच्चे कोनों में, नहा रहा है खुलेआम बेशर्म सा किसी एकाकी छत पर, धड़क रहा है दिल्ली के किसी पार्क में बैठे दो ड़रे सहमे से द‍िलों में, घुल रहा है मैगी की महक में वाष्प सा... वाष्प, ओह तुम भी हो जाओगे न एक दिन... और मैं फि‍र रह जाऊंगी मरुस्थल सी....)

उसने मुंह घुमाया, उसकी ऊंगल‍ियां किबोर्ड पर दौड़ रही थीं तेजी से. वो आंखें बंद किए उन उंगल‍ियों की छुअन को सहेज रही थी... क्यों, क्यों ये क‍िबोर्ड पर हैं. कितना संगीत है इनकी इस थ‍ि‍रकन में, क‍ितने नर्म हैं इनके पोर... वो क‍िबोर्ड पर नहीं, उसके बालों में होनी चाह‍िए, बालों में भटके मुसाफ‍िर सी राह तलाशती रहें... पर ऐसे में कहीं उसका बर्फ हो चुका दि‍ल प‍िघल गया तो... तो वो वाष्प होगा, अरे नहीं, वाष्प होना तो चले जाना है...

'रोक लो न उसे, रोको, रोको, अरे रुको रुको...'
वो काम छोड़ पलट गया था-
'क्या हुआ, क‍िसे रोक रही हो, यहीं तो हूं मैं...'
'...'
तुम फि‍र कुछ नहीं बोलोगी'
'...' ( बोल तो रही हूं, तुमको सुनता ही नहीं, वैसे तो कहते हो क‍ि आंखें बोलती हैं. फि‍र बार-बार पूछते क्यों हो...)
'तुम चुप ही रहो... मैं चला, मेरा काम खत्म हुआ. चलो कल फि‍र म‍िलेंगे'

वो उठा, और चला गया...

मैं वहीं बैठी थी... चुपचाप अंतस में उठती प्यास को सहलाती हुई... क्या उसका जाना वाष्प होना था... नहीं नहीं, उसने कहा न कल फि‍र म‍िलते हैं... वो लौट आएगा, फि‍र बरसेगा बूंद बूंद... लेक‍िन क्या फ‍िर जाएगा भी... हां, जाएगा न, फ‍िर फ‍िर लौट आने को...' पर, काश क‍ि इस वाष्प के साथ मेरे कण भी वाष्प हो जाएं और जब ये बरसें कभी तो समंदर पर जा बरसें, मुझे छोड़ दें बूंदों संग उसी अंतहीन ठंडक के आगोश में, ताकी रेत होकर भी मैं रहूं पानी के बीच, तैरती रहूं ताउम्र उस खारे पानी में, तलाशती रहूं तुम्हें और तुम सी मिठास...'





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